तौहीद क्या है???

अस्सलाम अलैकुम मेरे भाइयो..आइए हम इस्लाम की सबसे अहम और बुनियादी चीज़ तौहीद को समझे।
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सवाल(1)- तौहीद क्या है?
जवाब- तौहीद लफ्ज वहद से बना है जिसका मतलब अकेला और बेमिसाल होना है। अल्लाह को उसकी जात व सिफ़ात (गुणों) में अकेला व बेमिसाल मान लेना और ये मानना की उसकी जात व सिफ़ात में कोई शरीक नही, तौहीद कहलाती है।

सवाल(2)-तौहीद की कितनी किस्मे है?
जवाब- तौहीद तिन तरह की होती है। 1) तौहिदे रुबूबीयत 2) तौहिदे उलूहीयत 3) तौहिदे अस्मा व सिफ़ात (नाम और विशेषतायें)

सवाल(3)-तोहिदे रुबूबियत किसको कहते है?
जवाब- तोहिदे रुबूबियत ये है की अल्लाह तआला को उसकी ज़ात मे अकेला, बेमिसाल और लाशरीक माना जाये| न उसकी बीवी हैं न औलाद, न मां न बाप| वह किसी से नही पैदा न ही कोई उसकी ज़ात का हिस्सा हैं| जैसा की सुरह इख्लाश में अल्लाह तआला फरमाते है-

“(ऐ रसूल कह दीजिए) वह अल्लाह एक है।
अल्लाह बेनियाज़ है। न उसने (किसी को) जना न उसको (किसी ने) जना। और उसका कोई हमसर नहीं।”
(कुरान सुरः संख्या 112)

अल्लाह तआला को उसके कामों जैसे कि इस संसार को बनाने, मालिक होने, संसार का संचालन और व्यवस्था करने, रोज़ी देने, जिंदगी देने, मौत देने, और बारिश बरसाने इत्यादि में अकेला मानने को तौहीदे-रूबूबियत कहते हैं।अल्लाह तआला फरमाता है-

“वह अल्लाह ही हैं जिसने ज़मीन और आसमान को और उन सारी चीज़ो को जो उनके दरम्यान हैं छ: दिनो मे पैदा किया और उसके बाद अर्श पर कायम हुआ| उसके सिवा न तुम्हारा कोई हामी व मददगार हैं और न कोई उसके आगे सिफ़ारिश करने वाला, फ़िर क्या तुम होश मे न आओगे”
(सूरह अस सजदा 32, आयत 4)

चुनाँचि बन्दे का ईमान मुकम्मल नहीं हो सकता यहाँ तक कि वह इस बात का इक़रार करे कि सिर्फ अल्लाह तआला ही प्रत्येक चीज़ का रब (पालनहार), मालिक, पैदा करने वाला और रोज़ी देने वाला है, और यह कि वही ज़िन्दा करने वाला, मारने वाला, लाभ पहुँचाने वाला, हानि पहुँचाने वाला और एक मात्र वही दुआ क़बूल करने वाला है, जिसकी मिल्कियत में सारी चीज़ें हैं, और उसी के हाथ में हर प्रकार की भलाई है, हर चीज़ पे उसकी कुदरत है और अच्छी और बुरी तक़्दीर अल्लाह ही की तरफ से है।

हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत हैं कि नबी पाक ﷺ ने फ़रमाया – जब रात का तिहाई हिस्सा बाकी रह जाता हैं तो हमारा बुज़ुर्ग व बरतर परवरदिगार आसमाने दुनिया पर नाज़िल होता हैं और फ़रमाता हैं – कौन हैं जो मुझसे दुआ करे और मैं उसकी दुआ कबूल करुं? कौन हैं जो मुझसे अपनी हाजत मांगे और मैं उसे अता करूं? कौन हैं जो मुझसे बख्शिश चाहे और मैं उसे बख्श दूं? (बुखारी)

सवाल- क्या मक्का के मुशरिक इस तौहीदे रुबूबियत को मानते थे या नही?

जवाब- तौहीद की इस क़िस्म का उन मुशरिको ने भी विरोध नहीं किया जिन के बीच रसूल ﷺ भेजे गये थे, बल्कि सामान्य रूप से वो भी मानते थे की इस कायनात का मालिक अल्लाह है ; जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है :
“यदि आप उन से पूछें कि आकाशों और धरती की रचना किस ने की है ? तो नि:सन्देह उनका यही उत्तर होगा कि उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी अल्लाह ही ने पैदा किया है।” (सूरतुज़-ज़ुख़रूफ़: 9)

सवाल- जब मक्का वाले ये मानते थे की जमीनों आसमान का मालिक अल्लाह है तो फिर अल्लाह के आखरी रसूल ने उनके खिलाफ जिहाद क्यों किया और उन्हें काफ़िर क्यों करार दिया?

जवाब- वे इस बात को स्वीकार करते थे कि अल्लाह तआला ही सभी मामलों का संचालन करता है, और उसी के हाथ में जमीन और आसमान की बादशाहत है। किन्तु वे ऐसी चीज़ों में पड़े हुये थे जो उस (तौहीदे रूबूबियत) में खराबी पैदा करती थीं ; उन्ही खराबियों में से उनका बारिश की निस्बत सितारों की ओर करना, और काहिनों और जादूगरों के बारे में यह अकीदा रखना था कि वे ग़ैब की बातों को जानते है , इनके अलावा रूबूबियत में शिर्क के अन्य रूप भी थे।
अल्लाह तआला की रूबूबियत का इक़रार कर लेना मुसलमान होने के लिए काफी नहीं है, बल्कि उस के साथ ही तौहीद की दूसरी किस्म का भी इकरार करना जरुरी है, और वह तौहीदे उलूहियत (तौहिदे इबादत) अर्थात अल्लाह तआला को उसकी
इबादत में अकेला मानना है। और इसी तौहिदे इबादत में मक्का के मुशरिक अल्लाह के साथ दुसरे झूठे माबूदो को शरीक करते थे।

सवाल- तौहीद उलूहियत (तौहिदे इबादत) किसको कहते है?

जवाब- तौहीद उलुहियत ये है की हर किस्म की इबादत सिर्फ़ अल्लाह तआला के लिये ही की जाये और किसी दूसरे को उसमे शरीक न किया जाये।

सवाल- ईबादत किसे कहते है?

जवाब- कुरान में ईबादत कई मानों में इस्तेमाल हुआ है लेकिन बुनियादी मतलब अल्लाह के सामने झुक जाना और खुद को अल्लाह के हुक्मो के मुताबिक रखना है। नमाज़, नमाज़ से जुड़ी और नमाज़ की तरह इबादते जैसे कयाम, रूकू, सजदा, नज़र, नियाज़, सदका, खैरात, कुरबानी, तवाफ़, दुआ, पुकार, फ़रियाद, मदद चाहना, खौफ़,उम्मीद ये सब के सब इबादत में शामिल है।

“सूरज और चांद को सजदा न करो बल्कि उसको सजदा करो जिसने इन्हे पैदा किया हैं| अगर तुम वाकई अल्लाह की इबादत करने वाले हो|” (कुरान 41:37)

इबादत के माने किसी की इताअत और ताबेदारी भी हैं जैसा के नीचे कुरान की आयत से साबित हैं-

“ऐ आदम की औलादो! क्या मैने तुमको हिदायत न की थी के शैतान की इताअत न करना वह तुम्हारा खुला दुश्मन हैं| “(सूरह यासीन 36, आयत 60)

चुनांचे, अल्लाह के अलावा किसी और के हुक्म को मानना जैसे अपनी नफ्स का मसला हो या किसी और का, मज़हबी पेशवा हो या सियासी रहनुमा, शैतान हो या कोई इन्सान अगर इन तमाम लोगो का हुक्म अल्लाह के हुक्म के मुख्तलिफ़ हैं तो ये भी अल्लाह की ज़ात मे शिर्क होगा|

सवाल-क्या इबादत करना जरूरी है और ये कैसी की जानी चाहिए?

जवाब- अल्लाह की इबादत और बंदगी ही वह चीज़ है जिस के लिए अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने हमे पैदा किया है जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान हैः
“और मैने जिनों और इंसानों को इसी लिए पैदा किया कि वह मेरी इबादत करें” (कुरान 51:56)

और इसी लिए ही अल्लाह तआला अपने रसूलो को भेजता है ताकि बन्दों को सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की इबादत की तरफ बुलाया जाये और ये समझाया जाये की अल्लाह की ईबादत कैसे की जाए। अल्लाह तआला फरमाता है:
“और हमने तो हर उम्मत में एक (न एक) रसूल भेजा (इस पैगाम के साथ) अल्लाह की इबादत करो और तागुतो (झूठे माबुदो) से बचे रहो..” (कुरान 16:36)

“(ऐ रसूल) तुमसे पहले हमने कोई रसूल नही भेजा मगर हमने वहि भेजी उसकी तरफ की मेरे सिवा कोई माबूद नही, पस मेरी इबादत करो” (कुरान 21:25)

चुनांचे, अल्लाह की इबादत उसी तरीके पे होनी चाहिए जिस तरीके पे हमारे आका मुहम्मद ﷺ किया करते थे या जिन तरीको को उन्होंने बताया क्योकि अल्लाह को ही बेहतर पता है की उसकी ईबादत कैसे की जानी चाहिए।कोई भी इबादत अगर नबी ﷺ के तरीके पे नही है तो वो क़ुबूल नही की जाएगी, मसलन वुजू बनाने का तरीका हमको आखरी नबी ﷺ ने बताया लेकिन कोई अगर जानबुझकर पहले मुह धोये, फिर पैर धोये और फिर बाकी अंगो को धोये तो उसकी वुजू न होगी क्योकि उसने वो वुजू नबी के तरीके पे न की। उसी तरह कोई मगरिब में तिन रकत की जगह चार रकत फ़र्ज नमाज पढ़े तो ये कुबूल न होगी, जबकि वों ज्यादा पढ़ रहा है क्योकि नबी पाक के तरीके पे नही है।

सवाल- क्या दुआ भी इबादत में शामिल है?

जवाब- दुआ न सिर्फ इबादत है बल्कि दुआ ईबादत की जान है। प्यारे नबी ﷺ ने फरमाया-“दुआ इबादत है”, फिर नबी ﷺ ने ये आयत पढ़ी-
“और तुम्हारा परवरदिगार इरशाद फ़रमाता है- “तुम मुझसे दुआएं माँगों मैं तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूँगा, बेशक जो लोग हमारी इबादत से तकब्बुर करते (अकड़ते) हैं वह अनक़रीब ही ज़लील व ख्वार हो कर यक़ीनन जहन्नुम मे दाखिल होंगे” (सुरह गफिर आयत 60)

(अत-तिर्मिदी, किताबुल तफसीर ,किताब 47, हदीस 3555)

अल्लाह तआला फरमाता है:
“(ऐ रसूल) जब मेरे बन्दे आप से मेरे मुताल्लिक पूछे तो (कह दीजिये कि) मै उन के पास ही, क़ुबूल करता हूँ पुकारने वाले की दुआ जब वह मुझसे मांगे, पस उन्हें चाहिए कि मेरा भी कहना माने और मुझ पर ईमान लाएँ ताकि वह हिदायत पाएं।”
(सुरः बकरा, आयत 186)

” और अल्लाह के सिवा उसे न पुकार जो न तुझे नफा दे सके, न कोई नुकसान पहुंचा सके, फिर अगर तुमने (कहीं ऐसा) किया तो उस वक्त तुम भी ज़ालिमों में (शुमार) होगें। और (याद रखो कि) अगर अल्लाह की तरफ से तुम्हें कोई नुकसान पहुंचे तो फिर उसके सिवा कोई उसका दफा करने वाला नहीं होगा और अगर वह तुम्हारे साथ भलाई का इरादा करे तो फिर उसके फज़ल व करम का लपेटने वाला भी कोई नहीं ।वह अपने बन्दों में से जिसको चाहे फायदा पहुँचाएँ और वह बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है।”
(कुरान 11-106/107)

“वही रात को (बढ़ा के) दिन में दाख़िल करता है (तो रात बढ़ जाती है) और वही दिन को (बढ़ा के) रात में दाख़िल करता है (तो दिन बढ़ जाता है और) उसी ने सूरज और चाँद को अपना मुतीइ बना रखा है कि हर एक अपने (अपने) मुअय्यन (तय) वक्त पर चला करता है वही अल्लाह तुम्हारा परवरदिगार है उसी की बादशाहत है और उसे छोड़कर जिन माबूदों को तुम पुकारते हो वह खजूरो की गुठली की झिल्ली के बराबर भी तो इख़तेयार नहीं रखते.
अगर तुम उनको पुकारो तो वह तुम्हारी पुकार को सुनते नहीं अगर (बिफ़रज़े मुहाल) सुने भी तो तुम्हारी दुआएँ नहीं कुबूल कर सकते और क़यामत के दिन तुम्हारे शिर्क से इन्कार कर बैठेंगें…..”(सूरह फातिर, 13-14)

अत: अल्लाह के सिवा किसी और से दुआ और फरियाद करना बहुत बड़ा गुनाह शिर्क है क्योकि इबादत तो सिर्फ अल्लाह ही की होनी चाहिए।

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